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दलबदलू सांसदों और विधायकों पर कार्रवाई नहीं कर रहे हैं स्पीकर, क्यों उड़ रहा है कानून का मजाक?



<p model="text-align: justify;">एक देश, एक चुनाव को लेकर गठित रामनाथ कोविंद कमेटी दलबदल कानून पर भी विचार करेगी. हालिया दलबदल कानून पर भारत में लगातार सवाल उठते रहे हैं. 17वीं लोकसभा में कम से कम 4 ऐसे सांसद हैं, जो दल तो बदल लिए हैं, लेकिन उन पर अयोग्यता की कार्रवाई पिछले 25 महीने से नहीं हुई है.</p>
<p model="text-align: justify;">इनमें 2 तृणमूल,एक बीजेपी और एक वाईएसआर कांग्रेस पार्टी के सांसद हैं. सभी का केस लोकसभा स्पीकर के पास है. कहा जा रहा है कि अगर सितंबर तक इन सांसदों पर कार्रवाई नहीं होती है, तो भविष्य में शायद ही इन पर कोई एक्शन हो. क्योंकि 6 महीने बाद <a title="लोकसभा चुनाव" href="https://www.abplive.com/matter/lok-sabha-election-2024" data-type="interlinkingkeywords">लोकसभा चुनाव</a> का बिगुल बजने वाला है.</p>
<p model="text-align: justify;">लोकसभा की तरह ही देश की कई विधानसभाओं के स्पीकर भी दलबदलुओं पर मेहरबान दिखते हैं. महाराष्ट्र में शिवसेना के विधायकों पर काफी समय से अयोग्यता का मामला लंबित है. इसी तरह झारखंड विधानसभा में भी बाबूलाल मरांडी का केस सालों से लंबित है.</p>
<p model="text-align: justify;"><robust>क्यों उठ रहे सवाल, 2 प्वॉइंट्स…</robust></p>
<p model="text-align: justify;"><robust>1.</robust> एक मशहूर कहावत है- जस्टिस डिलेड इस जस्टिस डिनाइड यानी न्याय में देरी न्याय न मिलने के समान है. इसी को आधार बनाकर कार्यपालिका के लोग न्यायपालिका में पेंडिंग केसों को लेकर सवाल उठाते रहे हैं, लेकिन विधायिका में लेट-लतीफी पर कोई भी बोलने को तैयार नहीं है. &nbsp;&nbsp;</p>
<p model="text-align: justify;"><robust>2.</robust> लोकसभा के एक सांसद का कार्यकाल कुल 5 साल का होता है. ऐसे में अगर एक-एक दलबदल केस निपटाने में 2 साल से अधिक का समय लगे, तो फिर दलबदल कानून का क्या महत्व है?&nbsp;</p>
<p model="text-align: justify;"><robust>इन नेताओं के खिलाफ दलबदल का मामला लंबित</robust></p>
<p model="text-align: justify;"><robust>1. शिशिर अधिकारी-</robust> पश्चिम बंगाल के कांथी से तृणमूल कांग्रेस के सांसद शिशिर अधिकारी पर भी दलबदल का मामला है. जून 2021 में तृणमूल कांग्रेस के सुदीप बंधोपाध्याय ने शिशिर के खिलाफ लोकसभा अध्यक्ष को शिकायत दी थी.&nbsp;</p>
<p model="text-align: justify;">टीएमसी के मुताबिक पश्चिम बंगाल चुनाव के दौरान शिशिर ने बीजेपी के बड़े नेताओं के साथ मंच शेयर किया था. इतना ही नहीं, उन्होंने विधानसभा चुनाव में अपने बेटे और बीजेपी नेता शुभेन्दु अधिकारी के पक्ष में प्रचार भी किया.</p>
<p model="text-align: justify;">तृणमूल ने इसकी तस्वीर और वीडियो कॉपी भी दिखाने की बात कही थी. अगस्त 2022 में तृणमूल ने फिर से कार्रवाई को लेकर लोकसभा स्पीकर को पत्र लिखा. शिशिर की सदस्यता पर लोकसभा की विशेषाधिकार समिति ने सितंबर 2022 में सुनवाई भी की थी.&nbsp;</p>
<p model="text-align: justify;">हालांकि, एक साल बीत जाने के बाद भी शिशिर को लेकर कोई एक्शन नहीं लिया गया है.&nbsp;</p>
<p model="text-align: justify;"><robust>2. दिब्येंदु अधिकारी-</robust> शिशिर अधिकारी के छोटे बेटे और बीजेपी नेता शुभेन्दु अधिकारी के भाई दिब्येंदु भी पश्चिम बंगाल के तमलुक से तृणमूल के सांसद हैं. दिब्येंदु के खिलाफ दलबदल का मामला है. उन पर 2021 के चुनाव में बीजेपी के खुलकर समर्थन करने का आरोप है.</p>
<p model="text-align: justify;">सुदीप बंधोपाध्याय ने लोकसभा स्पीकर को जून 2021 में पत्र लिखा था और कहा था कि दिब्येंदु ने भाई की राजनीति चमकाने के लिए अमित शाह के साथ मंच साझा किया. हालांकि, दिब्येंदु ने तृणमूल में ही रहने की बात कही.</p>
<p model="text-align: justify;">शिशिर के साथ ही दिब्येंदु का मामला भी विशेषाधिकार समिति के पास है.&nbsp;</p>
<p model="text-align: justify;"><robust>3. रघुराम कृष्ण राजू -</robust> आंध्र प्रदेश के नरसापुरम सीट से वाईएसआर कांग्रेस के सांसद रघुराम कृष्ण राजू पर भी दलबदल का आरोप है. वाईएसआर ने जुलाई 2020 में ही राजू के खिलाफ लोकसभा स्पीकर के पास शिकायत दी थी.&nbsp;</p>
<p model="text-align: justify;">राजू वाईएसआर कांग्रेस प्रमुख जगन मोहन रेड्डी के मुखर आलोचक माने जाते हैं. उन्होंने खुले मंच से रेड्डी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था. राजू का मामला भी विशेषाधिकार समिति के पास है.</p>
<p model="text-align: justify;"><robust>4. अर्जुन सिंह-</robust> पश्चिम बंगाल के बैरकपुर से बीजेपी के सांसद अर्जुन सिंह भी दलबदल कर तृणमूल का दामन थाम चुके हैं. हालांकि, 12 महीने से ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी उनकी सदस्यता अभी तक नहीं गई है.&nbsp;</p>
<p model="text-align: justify;">अर्जुन सिंह 2019 में तृणमूल छोड़ बीजेपी का दामन थामा था. उन्हें बैरकपुर से पार्टी ने चुनाव लड़वाया. सिंह तृणमूल के कद्दावर नेता दिनेश त्रिवेदी को चुनाव हराने में कामयाब रहे. 2021 विधानसभा चुनाव के बाद सिंह ने फिर पलटी मारी और तृणमूल का दामन थाम लिया.</p>
<p model="text-align: justify;"><robust>विधानसभा का भी हाल बुरा</robust><br /><robust>1.</robust> महाराष्ट्र विधानसभा में शिवसेना के 16 विधायकों की अयोग्यता पर फैसला होना है. सुप्रीम कोर्ट ने मार्च में ही विधानसभा स्पीकर से इस पर फैसला लेने के लिए कहा था. हालांकि, लगातार यह मामला टलता जा रहा है.</p>
<p model="text-align: justify;">उद्धव गुट का आरोप है कि स्पीकर राहुल नार्वेकर <a title="एकनाथ शिंदे" href="https://www.abplive.com/matter/eknath-shinde" data-type="interlinkingkeywords">एकनाथ शिंदे</a> की सरकार बचाने के लिए फैसला लेने में देरी कर रहे हैं. सदस्यता अगर रद्द होती है तो मुख्यमंत्री को कुर्सी छोड़नी पड़ सकती है. कई मंत्रियों की भी कुर्सी संकट में है.</p>
<p model="text-align: justify;">राहुल नार्वेकर ने इसी महीने की 14 सितंबर को इस मामले की सुनवाई करने की बात कही है.</p>
<p model="text-align: justify;"><robust>2.</robust> झारखंड में भी अयोग्यता का एक मामला विधानसभा स्पीकर कोर्ट में लंबित है. झारखंड में विधानसभा चुनाव के बाद झाविमो के मुखिया बाबूलाल मरांडी ने बीजेपी में अपनी पार्टी का विलय कर लिया. हालांकि, उनके 2 विधायकों ने इसका विरोध कर दिया.</p>
<p model="text-align: justify;">इसके बाद यह मामला स्पीकर के पास चला गया. काफी अरसा बीत जाने के बाद भी स्पीकर कोर्ट से इस पर फैसला नहीं आया है. झारखंड विधानसभा का कार्यकाल में अब डेढ़ साल से भी कम का वक्त बचा है.&nbsp;</p>
<p model="text-align: justify;"><robust>3.</robust> पश्चिम बंगाल विधानसभा में भी 5-7 दलबदलू विधायकों का मामला लंबित है. इनमें मुकुल रॉय और सुमन कांजीलाल जैसे कद्दावर बीजेपी नेताओं के नाम शामिल हैं.&nbsp;</p>
<p model="text-align: justify;">बंगाल में चुनाव के बाद करीब बीजेपी के 6 विधायक तृणमूल में शामिल हो चुके हैं. हालांकि, इनमें से किसी की भी सदस्यता नहीं गई है. कई विधायकों के अयोग्यता का मामला हाईकोर्ट भी जा चुका है.</p>
<p model="text-align: justify;"><robust>दलबदल कानून में कार्रवाई के लिए समय तय नहीं</robust><br />केंद्र सरकार ने विधायिका के भीतर दलबदल को रोकने के लिए साल 1985 में भारत के संविधान में 52 संशोधन किया गया. इसके बाद 10वीं अनुसूची आस्तित्व में आई. 10वीं अनुसूची के मुताबिक दलबदल के मुद्दे पर सांसदों और विधायकों पर कार्रवाई का अधिकार स्पीकर के पास है.</p>
<p model="text-align: justify;">इसमें अंदर और बाहर दोनों जगह उनके आचरण के लिए अयोग्यता की कार्रवाई का अधिकार स्पीकर को दिया गया है. हालांकि, कानून में समय-सीमा की कोई बात नहीं होने की वजह से फैसले जल्दी नहीं हो पाते हैं.</p>
<p model="text-align: justify;">लोकसभा के पूर्व सेक्रेटरी जनरल पीडीटी आचारी अंग्रेजी अखबार द हिंदू में लिखते हैं- पिछले 5-7 साल में जिस तरह से दलबदल कानून का हाल बना दिया गया है, उससे लगता है कि इस कानून की आवश्यकता ही खत्म हो गई है.</p>
<p model="text-align: justify;">आचारी आगे कहते हैं- कुछ लोगों ने इस कानून के तोड़ने की तरकीब निकाल रखा है, जो गलत है.&nbsp;</p>
<p model="text-align: justify;">जानकारों का कहना है कि सत्ताधारी दल के सुविधानुसार स्पीकर दलबदल पर फैसला करते हैं. यही वजह है कि लंबे वक्त तक पार्टी बदलने के बावजूद भी नेता अपनी कुर्सी बचाए रखने में कामयाब रहते हैं.</p>

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