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लेखक भी आम इंसान की तरह होता है, चलता-फिरता, बैंगन-मूली ख़रीदता, दुकानदार से मोलभाव करता : चंचल


चंचल | चित्रकार | पत्रकार | काशी (बनारस) हिंदू विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष 

त्रिलोचन जी का दिन शुरू होता संझलौके गोदौलिया के टांगा स्टैंड से. हम तीन जन- धूमिल जी, नीरव जी और हम बे नागा बैठते अस्सी हज़ारी की चाय की दुकान पर. त्रिलोचन जी अब नहीं हैं , उनका “सानेट” खुला पड़ा है अनगिनत भाषाओं में. उन्हें उनके जन्मदिन पर नमन कर रहा हूं.

”आखिर वह कौन-सी चीज है, जिसे त्रिलोचन में जोड़ देने पर वह शमशेर हो जाता है और घटा देने पर नागार्जुन?”

महान कथा शिल्पी फणिश्वर नाथ रेणु की इस लिखावट ने हमें उकसाया कि हम साहित्य को भी जानें. ये उस समय की बात है, जब हम गांव से निकल कर काशी विश्वविद्यालय में फ़ाइनार्ट्स के तालिबे इल्म बने थे. लोग न हंसे तो, एक बात बता दूं कि तब तक हम यही जानते थे, और मुतमइन थे कि “जो लेखक या कवि होते हैं, वे ज़िंदा नहीं हैं.” यह अवधारणा हमें गांव के स्कूलों में पढ़ायी जाने वाली कोर्स की किताबों को पढ़कर बनानी पड़ी थी. बनारस आया तो यह भ्रम टूटा, “ये जो रिक्शे पर जा रहे हैं आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी हैं.”

“नाखून क्यों बढ़ते हैं?” वाले? वही हैं, इनका लिखा और भी है…

धूमिल से मिले हो? चलो मिलवाता हूं… वो जो पान घुलाये मुस्कुरा रहे हैं, शिव प्रसाद सिंह हैं, बहुत बड़े लेखक हैं, “गली आगे मुड़ती है… इन्ही का लिखा हुआ है, उनको पहचानते हो- वो दाढ़ी वाले, चौड़ी मोहड़ी का पजामा और घुटाने के नीचे तक जाता लम्बा कुर्ता पहने पैदल चले आ रहे हैं, त्रिलोचन जी हैं. शाम को यहीं अस्सी पर आना डॉ. काशी नाथ सिंह से मिलवाऊंगा.”

गांव में बनी अवधारणा टूटी. लेखक भी आम इंसान की तरह होता है… चलता-फिरता… बैगन-मूली ख़रीदता… दुकानदार से मोलभाव करता… इतना सरल? मिल कर बतियाया जा सकता है. गांव के स्कूल पर, हिंदी के मास्टर पर, बेवक़ूफ़ प्रिंसिपल पर ग़ुस्सा आया- साल में एकाध तो टूर बनारस, इलाहाबाद ले जा सकते हैं, जिन लेखकों की कठिन जीवनी न लिख पाने की वजह से छात्र फ़ेल होते रहते हैं, उन्हें रटना तो नहीं पड़ता.

भाई नरेंद्र नीरव उन दिनों विश्वविद्यालय में छात्र थे, और कविता भी लिखते थे, उन्होंने मिलवाया था. रेणु की एक किताब दी. उसमे “त्रिलोचन” पर जो लिखा गया था, उत्सुकता जगी. शमशेर सिंह और नागार्जुन जी तो काशी से दूर हैं, लेकिन त्रिलोचन जी तो यहीं हैं.

सांझ हो रही थी, हम गोदौलिया स्थित द रेस्टोरेंट के सामने खड़े थे. किसी ने कहा- त्रिलोचन जी को देखो. देखा. अचंभित हो गया… लंबा डग भरते, सीना ताने, मूड़े पर बदरंग कनस्तर लादे त्रिलोचन जी नज़दीक आ गए.

“शास्त्री जी कहां तक? ये कनस्तर में क्या है?”

“मदनपुरा जा रहा हूं, गेहूं है, पिसवाना है, घर में आटा ख़त्म है.”

“पान तो खा लीजिए.”

“इसे रख कर आता हूं, लगवा कर रखना.”

शास्त्री जी, त्रिलोचन जी को “बनारस शास्त्री” बोलते थे. शास्त्री जी, आगे बढ़ गए- शास्त्री जी का क़िस्सा वही भीड़ में रह गया…

“एक बार की बात है, शास्त्री जी घर से कनस्तर में गेहूं भर के निकले थे पिसवाने के लिये. रास्ते में काशी नाथ सिंह मिल गए. रिक्शे से स्टेशन जा रहे थे, उन्हें कलकत्ता जाना था, किसी सम्मेलन में भाग लेने. काशी जी के पास दो टिकट थे, एक और किसी को साथ जाना था, लेकिन ऐन वक्त पर वह दूसरा नहीं जा पाया था.

काशी जी ने पूछा, “त्रिलोचन जी कलकत्ता चलेंगे?”
त्रिलोचन जी ने हामी भर दी. चक्की पर गेहूं रखा और काशी नाथ सिंह के साथ कलकत्ते चले गए.

लोग बताते हैं, उस सम्मेलन में लोगों ने जब त्रिलोचन जी को देखा, तो ख़ुशी से झूम उठे. लोग तो यहां तक बताते हैं, कि काश जी से ज्यादा बड़ा स्वागत त्रिलोचन जी का हुआ. चार दिन बाद लौटे बनारस.

लोगों ने त्रिलोचन जी की पत्नी से पूछा, “शास्त्री जी बग़ैर बताए चार दिन गायब रहे, आपको कोई फ़िकर भी नही हुई?”

जवाब मिला, “कोई नई बात थोड़े ही है, मसाला लेने बग़ल की गली में गए थे, दस दिन बाद भोपाल से लौटे थे.”

त्रिलोचन जी ने अभाव में ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा काटा, लेकिन स्वाभिमान का स्वभाव दिनों-दिन पुख्ता ही होता गया, जिसकी गवाह उनकी रचनाएं हैं. “उस जनपद का कवि हूँ” या “ताप से ताये हुए दिन” हिन्दी में पत्थर की लकीर खींच कर आज भी खड़ी हैं.

चंचल | चित्रकार | पत्रकार | काशी (बनारस) हिंदू विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष |

त्रिलोचन जी की दो ज़रूरी कविताएं- ताप से ताए हुए दिन और उस जनपद का कवि हूं.

ताप से ताए हुए दिन
ताप के ताए हुए दिन ये
क्षण के लघु मान से
मौन नपा किए.

चौंध के अक्षर
पल्लव-पल्लव के उर में
चुपचाप छपा किए.

कोमलता के सुकोमल प्राण
यहां उपताप में
नित्य तपा किए.

क्या मिला-क्या मिला
जो भटके-अटके
फिर मंगल-मंत्र जपा किए.

उस जनपद का कवि हूं
उस जनपद का कवि हूं जो भूखा दूखा है,
नंगा है, अनजान है, कला—नहीं जानता
कैसी होती है क्या है, वह नहीं मानता
कविता कुछ भी दे सकती है. कब सूखा है
उसके जीवन का सोता, इतिहास ही बता
सकता है. वह उदासीन बिलकुल अपने से,
अपने समाज से है; दुनिया को सपने से
अलग नहीं मानता, उसे कुछ भी नहीं पता
दुनिया कहां से कहां पहुंची; अब समाज में
वे विचार रह गये नही हैं जिन को ढोता
चला जा रहा है वह, अपने आंसू बोता
विफल मनोरथ होने पर अथवा अकाज में.
धरम कमाता है वह तुलसीकृत रामायण
सुन पढ़ कर, जपता है नारायण नारायण.

Tags: Hindi Literature, Hindi poetry, Hindi Author, Poem

FIRST PUBLISHED : August 20, 2023, 23:24 IST

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