फादर कामिल बुल्के: तुलसीदास का हाथ पकड़ कर साधना के पथ पर आगे बढ़े
आज भी जब हम भाषा के झगड़े में उलझे हैं तब फादर कामिल बुल्के को इस तरह याद करना होगा कि विदेश में जन्मा एक ऐसा शख्स जो हिंदी के लिए ऐसा काम कर गया जो हिंदी सेवी ने भी नहीं किया. उन्होंने ‘अंग्रेजी हिंदी शब्दकोश’ ही नहीं बनाया बल्कि विश्वविद्यालयों में हिंदी में शोध कार्य को आरंभ करवाया. वे बेल्जियम से ईसाई धर्म का प्रचार करने भारत आए थे लेकिन यहां रामायण पर प्रामाणिक शोध कर ख्यात हो गए. वे जो तुलसी के हनुमान कहलाए और ऐसे ईसा भक्त जिन्होंने तुलसी बाबा की छाया में अपनी आध्यात्मिकता की राह बुनी. वे भगवद् को श्रद्धा से याद रखते थे और मानव सेवा को अपना सबसे बड़ा धर्म कहा करते थे.
कामिल बुल्के का जन्म 1 सितंबर 1909 को बेल्जियम के वेस्ट फ्लैंडर्स में के एक गांव रम्सकपेल में हुआ था. इनके पिता का नाम अडोल्फ और माता का नाम मारिया बुल्के था. अभाव और संघर्ष भरे बचपन में इन्हें माता से ईसाई धर्म की शिक्षा मिली. 1934 में वे ईसाई धर्म प्रचार के रूप में भारत आए. 16 वर्ष बाद 1950 में उन्हें भारत की नागरिकता मिली. इस दौरान वे एक ऐसे हिंदी और भारतीय संस्कृति प्रेमी के रूप में परिवर्तित हो गए थे जिनके कार्यों की मिसाल आज भी दी जाती है. फादर कामिल बुल्के ने कहीं लिखा कि जब वे भारत पहुंचे तो उन्हें यह देखकर दु:ख और आश्चर्य हुआ कि पढ़े-लिखे लोग भी अपनी सांस्कृतिक परंपराओं से अनजान थे. वे अंग्रेजी बोलना गर्व की बात समझते थे. तब उन्होंने निश्चय किया कि वे यहां की देशज भाषा की महत्ता को सिद्ध करेंगे.1940 में उन्होंने हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से संस्कृत में विशारद किया. 1944 में कलकत्ता से संस्कृत में ही एमए किया. इसके बाद 1949 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने हिंदी में पीएचडी की. उनकी पीएचडी का विषय था- रामकथा की उत्पत्ति और विकास. रामकथा पर प्रमाणिक शोध के लिए भारत सरकार ने उन्हें केंद्रीय हिंदी समिति का सदस्य बनाया था. रामचरित मानस को समझने के लिए उन्होंने अवधी और ब्रज भाषा भी सीखी.
डॉ. स्वप्निल यादव ने लिखा है कि फादर कामिल बुल्के ने हिंदी भाषा के लिए जो सबसे बड़ा काम भारत में किया वो ऐसा कार्य था जो किसी भारतीय हिंदी प्रेमी को करना चाहिए था, वह काम था हिंदी भाषा में शोध प्रस्तुत करना. फादर कामिल बुल्के ने 1950 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अपनी पीएचडी के लिए शोध प्रबंध हिंदी में ही लिखा जबकि इससे पहले देश के सभी विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी के अलावा दूसरी भाषाओं में शोध प्रबंध लिखने का नियम नहीं था. हिंदी भाषा के लिए उनके प्रेम को देखकर विश्वविद्यालय को अपने नियम बदलने पड़े. इसके बाद ही देश के दूसरे विश्वविद्यालयों में शोधकर्ताओं को अपनी भाषा में थीसिस जमा करने की अनुमति मिलने लगी. उनकी थीसिस के पांच अध्यायों में वैदिक साहित्य और रामकथा, वाल्मीकी रामायण, महाभारत की रामकथा, जैन रामकथा तथा बौद्ध रामकथा का विशद अध्ययन मिलता है. उनके अतुलनीय योगदान का सम्मान करते हुए उन्हें 1974 में देश के तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मभूषण से नवाजा गया. गैंगरीन के कारण 17 अगस्त 1982 को दिल्ली में उनकी मृत्यु हुई.
फादर कामिल बुल्के के कर्म के दो पक्ष हैं. एक आध्यात्मिक पक्ष और एक साहित्यिक पक्ष. उन्होंने साहित्य कर्म को आध्यामिक साधना निरूपित किया है. उन्होंने लिखा है कि हिंदी सीखने का जो संकल्प मैंने 1935 में किया था, वह मुझे कहां तक ले जाएगा, यह तो मैं उस समय नहीं जान सका, किंतु अब सोचता हूं कि जो हुआ, अच्छा ही हुआ. मुझे इस बात पर गौरव है कि ‘अंग्रेजी-हिंदी कोश’ लिखकर मैं भारत की सेवा करने में समर्थ हो सका क्योंकि मैं अपनी साहित्यिक साधना को अपनी आध्यात्मिक साधना का अंग मानता हूं.
फादर कामिल बुल्के एक संवेदनशील और दयालु इंसान थे. मानवीयता और अध्यात्म के गुण उनमें बचपन में ही विकसित हो गए थे. इस बारे में उन्होंने लिखा है, मैं लगभग दस बरस का था, जब मुझे पहली बार यह अनुभव हुआ कि सब मनुष्य एक है. पड़ोस की एक बीस बरस की लड़की क्षय रोग से मर गई थी. मां के कहने पर ही मैं उसके दर्शन करने गया. मैं डरते कांपते हुए उस कमरे में गया, जहां वह पड़ी हुई थी. मृत लड़की पूरी तरह शांत पड़ी थी. वह पहले जैसी लग रही थी. वह कितनी सुंदर लग रही थी. वह ऐसी लग रही थी, मानो मेरे आंख गड़ा कर देखने के कारण कुछ-कुछ शरमा रही हो. उसे देख कर मुझ पर एक मौन शोक छा गया था, एक ऐसा शोक, जिससे मैं पूरी तरह परिचित नहीं था, एक मनुष्य की असमय मृत्यु के कारण. मैं उस दिन दूसरे दिनों की अपेक्षा कहीं अधिक शांत रहा. मुझे याद नहीं कि मैं उस दिन क्या-क्या सोचता रहा, किंतु बाद में मैंने अक्सर यही सोचा कि वह मेरी तरह ही एक मनुष्य थी और उसकी तरह मैं भी किसी दिन मर जाऊंगा और यह कि इस दुनिया में हम सबों की नियति एक जैसी है. मैं कभी यह नहीं समझ पाया कि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के प्रति इतना क्रूर क्यों हो जाता है? हम सब एक ईश्वर की सृष्टि हैं. संन्यास का बीजारोपण सम्भवतः उसी दिन हो गया था.
उनकी आध्यात्मिकता संकीर्ण नहीं थी। वे ईसा भक्ति करते हुए भी राम और तुलसी के प्रति आस्थावान रहे। इस संबंध में फादर कामिल बुल्के जयंती समारोह में हिंदी कवि केदारनाथ सिंह का कहा याद आता है। केदार जी ने कहा था कि फादर कामिल बुल्के से न मिल पाना, उन्हें न देख पाना जीवन की जीवन की कसक है. मैं उन दिनों बनारस में था जब वे इलाहाबाद में शोध कर रहे थे. धर्मवीर भारती, रघुवंश से अक्सर उनकी चर्चा सुनता था लेकिन उनसे न मिल पाने का सुयोग घटित न होना था तो न हुआ. वे तुलसी के हनुमान थे. हनुमान ने जो काम राम के लिए किया है, तुलसीदास और रामकथा के लिए वही काम फादर कामिल बुल्के ने किया.
अपनी आध्यात्मिकता पर फादर कामिल बुल्के ने लिखा है कि मैं ईसा की भक्ति से प्रेरित हो कर भारत तथा भारतीयों की यथाशक्ति सेवा करता हूं. संन्यास लेने के बाद मैं अपनी साधना के प्रारंभिक वर्षों में इस बात का सबसे अधिक ध्यान रखा करता था कि मेरे हृदय में भगवदभक्ति सर्वोपरि हो. अब तक भगवान् के प्रति आस्था तथा भक्ति कम नहीं है, ऐसा विश्वास है, किंतु मैं इस बात का सबसे अधिक ध्यान रखता हूं कि मेरे हृदय में प्रत्येक मनुष्य के प्रति प्रेम और सहानुभूति हो. मेरे लिए सबसे मधुर अनुभव तब होता है, जब मैं किसी का भार हल्का कर सका और इस संसार में मेरी यही अभिलाषा रह गई है कि मैं अधिक से अधिक लोगों की सेवा कर सकूं. तुलसीदास का भी यही मनोभाव था. उन्होंने निरंतर दूसरों की सेवा में लगा रहने का वरदान मांगा था.
रामायण से प्रथम परिचय के बारे में फादर कामिल बुल्के ने लिखा है कि 1938 में मैंने रामचरितमानस तथा विनयपत्रिका को प्रथम बार आद्योपांत पढ़ा. उस समय तुलसीदास के प्रति मेरे हृदय में जो श्रद्धा उत्पन्न हुई और बाद में बराबर बढ़ती गई वह भावुकता मात्र नहीं है. साहित्य तथा धार्मिकता के विषय में मेरी धारणाओं से उस श्रद्धा का गहरा संबंध है. कुछ अन्य विशेषताओं के कारण भी मैं तुलसी के भक्ति मार्ग की ओर आकर्षित हो गया और उनका साहित्य पढ़ते-पढ़ते मेरे जीवन पर तुलसी की अमिट छाप पड़ गई है. मुझे लगता है कि मैं तुलसी का हाथ पकड़ कर साधना के पथ पर आगे बढ़ता हूं. तुलसी के इष्टदेव राम हैं और मैं ईसा को अपना इष्टदेव मानता हूं फिर भी मैं हम दोनों के भक्ति-भाव में बहुत कुछ समानता पाता हूं. अंतर अवश्य है इसका एक कारण यह भी है कि मुझमें तुलसी की चातक-टेक का अभाव है.
फादर कामिल बुल्के मानव मात्र की सेवा और अध्यात्मिकता के भाव का ऐसा प्रतीक रूप हैं जिन्हें हम श्रद्धा से याद करते हैं.
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Tags: Artwork and Tradition, Hindi Literature, Faith
FIRST PUBLISHED : August 17, 2023, 20:02 IST